Thursday, December 11, 2008

विकसित होता प्रेम

न्यून्तम उम्र-१४ वर्ष
शैक्षिक योग्यता-सिर्फ अंगे्रजी अच्छी बोलनी आनी चाहिए
आवच्च्यक वस्तु-लाड़कों के लिए निजी मोबाइल और मोटर बाइक, लड़कियों के लिए सिर्फ निजी मोबाइल
अतिरिक्त आवच्च्यक वस्तुऐं-पिता जी के पैसों का ढेर सारा पेट्रोल
साक्षात्कार की तिथी-१४ फरवरी वर्ष कोई भी हो
साथ लाने के लिए वस्तुएं-कोई डिग्री या प्रमाण पत्र नहीं बस लाल गुलाब और चॉकलेट का डिब्बा
यह योग्याताएं किसी सरकारी या प्राइवेट क्षेत्र में नौकरी पाने के लिए नहीं हैं यह योग्यताएं तो प्रेम के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखने के लिए आवच्च्यक हैं। एक बार पहला कदम रख दिया तो फिर तो एक के बाद एक कम्पनी छोड़ कर आप बड़ी कम्पनी तक चलते ही जायेगें, तजुरबा (एक्सपीरियन्स) जो हो जायेगा।
यही है आज की युवा सोच और प्रेम का विकास। समय के परिवर्तन के साथ बहुत सी वस्तुएं बदली उन्हीं में से एक था प्रेम। प्रेम शब्द के अर्थ का भी समय के साथ विकास हुआ। कभी कविताओं में दिखने वाला प्रेम आज बाग-बगीचों, नदी किनारों, चिड़िया घरों, होटलों, रेस्ट्रों, कॉलेजों की केन्टीनों में दिखने लगा है। यह है प्रेम का विकास। इसके पीछे युवा सोच की कड़ी मेहनत है और उस युवा सोच के पीछे कौन हैं ? शायद संगत, शायद सिनेमा, या शायद राष्ट्र का चौथा सतम्भ मीडिया। संचार की देवी मीडिया। मीडिया ने ही देच्च को १४ फरवरी के दिन का तोहफा दिया और साथ ही उसके अर्थ का स्वरुप मूल रुप से बदल दिया।
देच्च में क्या हो रहा है इससे ज्यादा चिन्ता मीडिया को इस बात की होती है कि करीना कपूर के जीवन में क्या हो रहा है ? रॉ के प्रमुख बदले उनका नाम सुनाई भी नहीं दिया पर करीना ने कितने बॉयफ्रैण्ड बदले इसकी खबर सबको दी गई। भारत ने पाकिस्तान से किन मुद्दों पर बात की इससे बड़ी खबर यह बनी कि राखी सावंत ने अपने बॉयफ्रैण्ड अभिषेक को कितने थपड़ मारे हैं। इन्हीं सब को देख कर अपने-अपने फ्रैण्ड बनाने का फैच्चन बन गया है। करीना के बॉयफ्रैण्ड बदलने पर अपने फ्रैण्ड को भी बदलना है पुराना जो हो गया है।
अब तो 1 से पेट नहीं भरता है ये दिल माँगें मोर। १,२,३,४............... बस बस बस यह दिल है कि कोई धर्मच्चाला नहीं जिसमें जितने मुसाफिर आयें उतने ठहर सकें। एक सच्चे प्रेम की चाह में कितनो को ट्राई करना पड़ता है यह तो दिल ही जानता है।
इन सबके पीछे मीडिया के अलावा अभिभावकों की भी जवाबदेही बनती है। अभिभावकों का जीवन इतना वयस्त होता है कि वे अपने बच्चों की तरफ ध्यान नहीं दे पातें हैं। धन कमाने की वयस्तता उन्हें अपने बच्चों से दूर ले जाती है। अपने बच्चों को समझने का और उनसे प्रेम करने का समय ही नहीं निकाल पाते। जो चीज घर से नहीं मिल पाती उसे बाहर ढूँढना पड़ता है। कुछ ऐसी ही पुरानी कहावत है मुझे ठीक से याद नहीं आ रही है। इस प्यार की कमी को पूरा करने के लिए युवा पीढ़ी निकल पड़ती है अपने घर से अपने-अपने वाहनों पर। और फिर ! और फिर शुरु होता है एक इंतजार ज्यादा लम्बा नहीं बस छोटा सा। आप के सोचने की देर है आपको आप जैसे बहुत मिलेगें जो घर से बाहर सच्चे प्यार की खोज में चले आये हैं। युवा कदम सही दिच्चा में आगे बड़ रहें हैं या नहीं यह बताने वाले तो धन कमाने में वयस्त हैं। उन्हें समझने वाले तो अपने पेच्चे में डूबे हैं ऐसे में युवा अपनी सोच को सही मान उस रास्ते पर अपने कदम आगे बड़ा तो देते हैं पर जिस रास्ते की मंजिल ही न हो उस रास्ते का भविष्य क्या सोचा जा सकता है। कुछ के कदम वापस घर को लौटते हैं और कुछ के! कुछ अपने रास्ते पर इतने आगे जा चुके होते हैं कि पीछे मुड़ने पर उन्हें अपना घर नहीं दिखता है। दिखता है तो रस्सी का फंदा, कूदने के लिए नदी और पीटने के लिए अपना माथा। ऐसे में कुछ अपनी किस्मत को कोसते हैं तो कुछ अपने उन मित्रों को जिन के कहने पर उन्होंने यह रास्ता चुना। भीगे होठ से शुरु हुआ कारंवा दिल के अरमां आंसुओं में बह गये पर खत्म।
परिणाम- प्यार में धोखा और माता-पिता के लिए बहुत सा दुखः
हल-सीधा सा रास्ता आत्महत्या। ऐसे में माता-पिता को किस कसूर की सज+ा दी जाती है सिर्फ इतनी कि वो अपने बच्चों को समय नहीं दे पाये और उन्हें समझ नहीं पाये। क्या इस कसूर की ये सज+ाऐं सही हैं ? क्या यह सज+ा कम है या बहुत ज्यादा ? ऐसे में मीडिया का क्या गया ?
वरुण आनन्द

Tuesday, November 25, 2008

एक हिन्दुस्तानी का दिल

मैं एक हिन्दुस्तानी जिसके दिल में एक हिन्दुस्तानी दिल धड़कता है आज अपने देच्चवासियों से कुछ कहना चाहता है। हो सकता है जो मैं कहने जा रहा हूँ वो आपको सही न लगे पर जो आवाज+ मेरे दिल से आयी वही आवाज+ आपके सामने लिख कर बयान रहा हूँ।

हम हिन्दुस्तानी आजादी के ६० साल बाद भी कुछ गमों को नहीं भुला पायें हैं। अंग्रेजों के दिये हुए घावों से अभी तक उभर नहीं पाये हैं। सोने की चिड़िया कहे जाने वाले हमारे देच्च को अंगे्रज लूट कर ले गये। देच्च को बर्बाद कर के भाग गये और देच्च के दो टुकड़े करा गये। सैकड़ों रियासतों में बँटे हिन्दुस्तान में अंग्रेज आये और ३०० सालों तक राज किया। हिन्दुस्तानी अंगे्रजों के जुल्म से इतने त्रस्त हुए कि आपसी दुच्चमनी भुला कर अंगे्रजों के खिलाफ एक जुट खड़े हो गये और अंगे्रजों को दुम दबा कर भागना पड़ा। भले ही आज हिन्दुस्तान के दो टुकड़े हो गये हों पर सैकड़ो टुकड़ों से तो दो ही भले। अंग्रेज हमारे देच्च से धन-दौलत सोना चाँदी ले गये पर अंग्रेजो की वज+ह से ही देच्च वासियों के दिल में एक दूसरे के प्रति जो मुहब्बत जागी। यह मोहब्बहत किसी बहुमूल्य वस्तु से कम है क्या ? भले ही अंग्रेज सोने की चिड़िया हमारे देच्च से ले गये पर उस चिड़िया के कुछ पंख भारत में ही छोड़ गये। यह पंख हैं देच्च की एकता और अखंण्डता, देच्च वासियों का एक दूसरे के प्रति प्रेम।

आजादी के ६० सालों में देच्च में इतने परिवर्तन हुए हैं जितने गुलामी के ३०० सालों में भी नहीं हुए थे। देच्च ने आर्थिक क्षेत्र में बहुत उन्नति की जिसके पीछे कृषि का योगदान सराहनीय है। देच्च में गरीबी की प्रतिच्चतता में बहुत कमी आयी है और यह प्रतिच्चत निरन्तर कम होता जा रहा है। प्रति व्यक्ति आय में १२,४१६ रुपये है जो सुखमय जीवन जीने के लिए पर्याप्त है। विदेच्चियों को भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा है तभी तो वे अपना धन भारत में बिना किसी डर के लगा रहे हैं। आर्थिक मंदी के इस दौर में अमेरिका पर ऋण का बोझ इतना पड़ा कि वहाँ की कितनी ही कम्पनियों का दीवाला निकल गया और अन्य देच्च पर इस मंदी का इतना असर पड़ा कि वहाँ भुखमरी के हालात पैदा हो गये। ऐसे में भारत उन देच्चों में शामिल है जिन पर इस मंदी की मार सबसे कम पड़ी। इससे उचित देच्च की आर्थिक सुदृढ़ता का उदाहरण मेरे पास नहीं है।

भारत की साक्षरता २००१ की जनगणना के अनुसार ६५।३८ प्रतिच्चत है जो एक देच्च की ठीक-ठाक स्थिति को बतलाती है। प्रबन्ध च्चिक्षा की बात करें तो आईआईएम अहमदाबाद ने विच्च्व के टॉप १०० बिजनेस स्कूलों में ९१वाँ स्थान हासिल किया है और कैरियर के नए अवसरों के मामले में इकानामिस्ट १०० की सूची में दूसरे स्थान पर है। भारत में तकनीकी च्चिक्षा की मिसाल इसी बात से दी जा सकती है कि भारत चांद पर अपने देच्च का ध्वज फहराने वाला दुनिया का छठा देच्च बन गया है। इससे पहले सिर्फ अमेरिका, रूस, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी, चीन और जापान जैसे विकसित देच्चों के ध्वज ही चांद पर लहरा रहे थे। अब एक विकासच्चील देच्च का भी नाम इन नामचीन देच्चों की सूची में शामिल हो गया जो सभी हिन्दुस्तानियों के लिए गर्व की बात है।

मनोरंजन की दुनिया में भारत की बादच्चाहत इन सभी क्षेत्रों से भी आगे है। देच्च की अभी तक दो फिल्में आस्कर के लिए नामांकित हो चुकीं हैं। देच्च में सिनेमा का कारोबार दुनिया में दूसरे स्थान पर है।

इतनी सब खूबियों के बाद भी क्या कारण है कि भारत अभी तक सिर्फ विकासच्चील देच्चों की कतार में ही है विकसित राष्ट्रों की सूची में शामिल नहीं हुआ। पहली नज+र में लाचार राजनीतिक संरचना और ढ़ीली न्याय प्रणाली को इसके लिए दोषी ठहराया जा सकता है। देच्च में फैलते आतंकवाद के लिए आप भी इसी को दोषी ठहराते होगें।

पर हमारे देच्च को बर्बाद करने के लिए तो किसी बाहरी ताकत या किसी आतंकवाद समूह की जरुरत नहीं है। यह काम तो हम हिन्दुस्तानी बखूबी संभाल रहे हैं। हमारे देच्च में आतंकवाद की समस्या सबसे प्रबल है पर उससे भी बड़ी समस्या क्षेत्रवाद और धर्मवाद की है। हमारे दिलों में देच्चवाद की भावना न जाने कब क्षेत्रवाद और धर्मवाद में बदल गई। कुछ राजनीतिक पार्टियां अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने के लिए लोगों को धर्म और क्षेत्र के रुप में बाँट रहीं हैं और इससे नुकसान किसी राजनीतिक पार्टी या राजनेता का नहीं देच्च का हो रहा है। राजनीतिक पार्टियों का क्या है चुनाव को आता देख किसी मुद्दे पर अपना चुनाव प्रचार करेंगी कभी धर्म के नाम पर तो कभी क्षेत्र के नाम पर। हिन्दुस्तानी भाईंयों को आपस में ही लड़वायेगीं और खुद लाभ के रुप में लोगों के वोट खयेगीं।

इसलिए भारत को बर्बाद करने के लिए किसी विदेच्ची ताकत या किसी आतंकी गिरोह की कोई जरुरत नहीं है इसके लिए तो तानाच्चाही करने वाली दो-चार राजनीतिक पार्टियां और उनके दिखाये गये मार्ग पर चलने वाले कुछ लोग चाहिए। बस इन्हीं से भारत को बर्बाद करने का काम हो जायेगा।

आज हर किसी की जुबान से बस यह सुनाई देता है कि मैं हिन्दू हूँ, वो मुस्लमान है, तुम सिख हो या हम उत्तर भारतीय हैैंं और तुम दक्षिण भारतीय। कोई भी यह नहीं कहता कि मैं हिन्दुस्तानी हूँ, हिन्दुस्तान का रहने वाला हूँ। देच्च में देच्चवाद का अकाल पड़ने लगा है और धर्मवाद और क्षेत्रवाद की बाढ़ सी आयी हुई है। यदि जल्द ही इस बाढ़ पर बांध नहीं बाधां गया तो यह बाढ़ देच्च को जातिवाद, भ्रष्टाचार आदि नामों के रोग से ग्रस्त करके जायेगी जिसका नतीजा यह होगा कि फिर कोई दूसरा देच्च हममें देच्चवाद की भावना जगाने के लिए हमारे देच्च पर ३०० या उससे भी कही अधिक वर्ष तक राज करेगा और सोने की चिड़िया के नुचे हुए पंख भी अपने साथ ले जायेगा।

Monday, November 10, 2008

मेरा दुखः

कई दिनों से मैंने कोई लेख नहीं लिखा। इसका कारण है मेरा दुखः। मैं हर दुखः का सामना मुस्कुरा के करता हूँ, भगवान ने मुझे कुछ ऐसा ही बनाया है। पर इन दिनों जो दुखः मुझे घेरे हुए है उसका सामना मैं नहीं कर पा रहा हूँ। शायद इसी कारण से कुछ लिख भी नहीं पा रहा हूँ। दो महान भारतीय खिलाड़ियों का सन्यास मेरे दुखः का कारण है। दादा और जंबो अब भारतीय टीम में नहीं खेलेगें इससे बड़े दुखः की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है। दादा हमेच्चा से ही मेरे प्रीय बल्लेबाज रहें हैं और जंबो की तारीफ मेरे मुँह से छोटे मुँह बड़ी बात होगी। इन दोनों खिलाड़ियों ने अपने जीवन के कई साल भारत की सेवा में बितायें हैं। भारतीय टीम में इनका योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा और इन दोनों खिलाड़ियों को कौन भारतवासी अपनी यादों से और अपने दिल से निकालना चाहेगा। यह दोनों महान खिलाड़ी humesha हमारें दिलों में रहेगें।
आज मैं दुखीः हूँ पर रो नहीं रहा हूँ। जरुरी नहीं है कि दुखी होने पर आँखों से आँसू निकलें। आज मेरे आँसू मेरी आँखों से नहीं मेरी कलम से निकल रहें हैं। पर मैं अपने दुखः को यह सोच कर कम कर लेता हूँ कि जो आया है वो जायेगा भी। दादा और जंबों ने भारतीय क्रिकेट टीम की बहुत सेवा की अब इतना तो हक बनता ही है वो आराम करें। शायद यही सोच कर मैं अपने दुखः को कम करता हूँ और उनका भावी जीवन सुखमय हो इसकी कामना भगवान से करता हूँ। उनके सुख को अपने दुखः से ज्यादा देख कर मैं अपने दुखः को कम करुँगा।
मैंने अपने दुखः को आप के साथ बाँटा क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि एक अच्छा साथी दुखः को आधा और सुख को दो गुना कर देता है। आप के साथ से मेरा दुखः कम हो जायेगा। मैंने आप को अपने दुखः में शमिल किया इस बात के लिए मैं आप से माफी चाहता हूँ पर इस बात का वायदा करताा हूँ कि अपने सुख मैं सबसे पहले आप को ही शामिल करुँगा।

Tuesday, October 21, 2008

बापू के देच्च पर नाथुओं का राज

कहने को देच्च तो बापू का है पर बापू के देच्च में हर जगह नाथू ही दिखते हैं। राष्ट्रपिता तो बापू हैं पर देच्च पर राज नाथुओं का है । नोट पर तो बापू हैं पर वोट के लिए लड़ने वाले नाथू हैं। स्वराज तो बापू ने पा लिया पर देच्चवासियों को सुराज कब मिलेगा ?
चुनाव आ रहे हैं और हमेच्चा की तरह नाथू कमर कसे तैयार हैं। इस बार फिर बापू की हत्या जो करनी है। कहीं निच्चाना चूक न जाए। नाथुओं का नारा है देच्च के विकास का वादा और काम है सारा माल अन्दर करना।
बन्दूक में गोलियां तो बहुत हैं पहचानना है कौन सी गोली है बापू के सीने को छलनी करने के लिए। वो गोली आरक्षण, राम सेतु, न्यूक्लियर डील की हो या फिर धूम्रपान की नयी चमकती गोली। और भी बहुत सी गोलियां है।
आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आया तो सभी दलों के नाथुओं के चेहरों पर कहीं खुच्ची तो कहीं गम दिख रहा था। एक तरफ आरक्षण देकर पिछड़ों का साथ मिला पर सामान्य का साथ कैसे छोड़ें। तो एक बड़े प्रदेच्च की मुख्यमंत्री ने केंद्र में आने पर सवर्णों को आरक्षण देने का वादा किया। आरक्षित वर्ग में क्रीमी लेयर पर दबंगों का असर इतना है कि जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहें हैं वैसे-वैसे क्रीमीलेयर की सीमा बढ़ती ही जा रही है। अब तो ३५ हजार महीना से ज्यादा कमाने वाला भी मलाई दार तबके के दायरे से बाहर हो गये हैं। क्या इतनी आमदनी वाले को आरक्षण के दायरे में रखना सही है ? बिल्कुल सही है। अगर वो दायरे से बाहर होंगे तो उनका वोट भी किसी और का होगा। सुप्रीम कोर्ट ने तो अपना काम पहले कर दिया लेकिन बाद में दबंगों के असर ने उसके किए करार पर पानी फेर दिया। दरअसल, क्रीमीलेयर वालों को तो आरक्षण की आवच्च्यकता ही नहीं है। इससे नुकसान ओबीसी मे ही ज्यादा पिछड़े लोगों का होना है। बापू के देच्च में जाली प्रमाण पत्र बनाना बहुत आसान है, ज्यादा तर ऐसे फर्जी पत्र बापू की तस्वीर के नीचे ही तैयार किये जाते हैं काले कोट वाले नाथुओं की दुकान में। यह वोट लेने के लिए छलावे के अलावा और कुछ नहीं है।
देच्च के भले के नाम पर न्यूक्लियर डील पर मुहर लग गई, कुछ नाथू खुच्च हुए तो कुछ इस डील के खिलाफ। वास्तव में इस डील से किसका भला होगा यह बता पाना अभी मुच्च्िकल है। इन सब के साथ और भी कई गोलियां हैं। सेतुसमुद्रम वाली गोली को लाने से मामला खराब हो सकता है इसलिए जब जरूरत पड़ेगी तभी उसे तमन्चे में डालेंगे।नाथुओं की नीति है एक गोली ठण्डे बस्ते में तो नई गोली तमन्चे के अन्दर। नई चमचमाती गोली का नाम है सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान निषेध। यह गोली तो सच में बापू के नच्चा रोधी देच्च को बनाने का सपना साकार करेगी। सब खुच्च हैं। खास तौर पर खाकी वर्दी वाले नाथू। उनकी रोज की आमदनी जो बढ़ जायेगी। सरकार ने दुपहिया वाहन वालों को हेलमेट पहनना जरूरी कर दिया तो खुच्ची इन्हें ही हुई थी। एक बकरे से ५०-१०० रुपये की कमाई जो होती थी। अब एक बकरा एक बीड़ी के बदले कम से कम एक बीड़ी तो दे ही देगा। बकरा ज्यादा शौकीन हुआ तो नाथुओं के ५-१० रुपये कहीं नहीं गये। एक माणिक चंद का तो जुगाड़ हो ही जायेगा। कुछ भी हो जाये यह कानून लागू हो पाएगा तो सिर्फ कागजों पर या मंत्रालय की फाइलों में। इससे जनता भी खुच्च, नच्चेड़ी भी खुच्च और वर्दी वाले नाथू भी खुच्च। इन सबको खुच्च करने के बाद नाथुओं को मिलने वाले वोटों की गिनती में कमी नहीं हो सकती।
ये बातें तो रहीं गोलियों की। अब बात करें बापू के सीने पर गोली चलाने वाले हाथों की। आज चारो तरफ गोडसे ही गोडसे हैं और बीच में हैं बेचारे बापू। साभी नाथू तो आपस में लड़ रहें हैं पर इस लड़ाई में बापू बलि का बकरा बन रहे हैं। हर बार जो होता आया है क्या इस बार भी वही होगा नाथू जीतेगा और बापू की हत्या कर देगा। इस बार वही हाथ बापू की हत्या करेंगे जो चुनाव में तीन तिकड़म से ज्यादा लूटने की कोच्चिच्च करेंगे। हमेच्चा से यही तो होता आया है। जो जीता उसी ने बापू की हत्या की, बापू के उसूलों की हत्या की। बापू भी सोचते होंगे उनकी गलती क्या थी ? क्या देच्च को आजादी दिलाना कोई अपराध था। आज देच्च फिरंगियों से तो आजाद है पर देच्च में घूम रहे नाथुओं से कब आजाद हो पाएगा। हो पाएगा भी कि नहीं।

Tuesday, October 14, 2008

समय बदल रहा है!

समय बदल रहा है, और हम! जमाने के साथ रहना है तो समय के साथ चलना है। पर क्या समय के साथ चलने में खुद को भूल जाना सही है?समय तो तेजी से बदल रहा है सब जानते हैं और हमारे भीतर कितने परिवर्तन आयें हैं कभी किसी ने सोचा है नहीं। मैंने भी नहीं सोचा था पर जब सोचा तो वो परिवर्तन कुछ ऐसे थे।सत युग, त्रेता युग सब बीत गये वैज्ञानिक युग का समय है हर घर में कम्प्यूटर है। कम्प्यूटर है तो सॉफटवेयर भी चाहिए। पुराने हो गये तो नये वर्सन के चाहिए। फोटोच्चॉप ७.० है तो ७.२ चाहिए, कोरल ११ है तो १२ चाहिए। सब कुछ कितना हाईटेक हो गया है। शायद अब हमें उस दिन के लिए तैयार रहना चाहिए जब ग्रन्थ और पुराण भी वर्सन में मिलेगें। हनुमान चालीस वर्सन ४, गीता वर्सन ५.२ और रामायण वर्सन १३। यह सिर्फ कल्पना है पर कम्प्यूटर भी कभी सिर्फ कल्पना ही थी। समय बदल गया है तो सोच भी बदलेगी खास तोर से युवाओं की सोच। इंक पैन की जगह जैल पैनों ने ले ली तो हेयर ओइल की जगह हेयर जैल ने। कभी समय था यज्ञ, हवन और तपस्या का। अब समय है डिस्को, डीजे और पब का। जेम्स बॉड के फैन तो मिलेगें पर हनुमान जी के भक्त कहाँ? गद्य में शोले शामिल हो गई है। जल्द ही काव्य में सूर, तुलसी और कबीर की जगह जावेद आख्तर और सयैद कादरी आ जायें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। अगर हिन्दी की परिक्षा में भीगे होठ की व्याखया करने को आये तो किस बोर्ड में २ लाख बच्चे हिन्दी में फेल होगें। गानों के बोल तो याद हैं पर श्लोक और दोहों के शब्द सही जगह पर कहाँ। हिमेच्च, सोनू को तो सभी जानते हैं पर तानसेन और बैजूबाबरा का नाम कभी सुना नहीं। कभी समय था मन्दिरोंमें भक्त दर्च्चन के लिए जाते थे, फिर समय आया मन्दिर में जोड़ों को दिखाने को। पर अब मन्दिर कौन जाये जब पाटनर मिलें डाण्डिया नाईट में। गानों के रीमिक्स का दौर है अब तो भजन भी ढोल मिक्स चाहिए। अगर जीन्स घुटने से फटेगी नहीं तो गर्लर्फैन्ड मिलेगीमिलेगी नहीं। खाने में घर पर बनी चपाटी से ज्यादा रेस्टोरेन्ट का गर्म कुत्ता (हॉट डॉग) पसन्द है। युवाओं में जाघियां दिखाने की होड़ मची है। तभी तो लोग जानेगें कि आपने ६०० रुपये की जॉकी पहनी है न कि २५ रुपये की अन्डरवियर। रईसी दिखाने का आसान फंडा बाईक में cc जितनी ज्यादा। पेट्रोल की परवाह नहीं पर स्टाइल से कोई समझौता नहीं। रिपोर्ट कार्ड में अंक ५० प्रतिच्चत से कम हैं पर माोबइल ५० हजार से सस्ता क्यों? घर पर रामायण कौन देखे जब टी.वी. में आये बिग बॉस। पर हमें समय के साथ चलना है। सह तो बात रही युवाओं की जिससे हम अपने माता-पिता सॉरी अपने मोम-डेड से जनरेच्चन गैप कह कर बच निकलते हैं पर बढ़ों को क्या वो भी तो समय की दौड़ में शामिल हैं। अब क्लास लें टीचरों की तो वो गुरु है हमारे हमेच्चा हमसे दो कदम आगे। स्कूल हिन्दी मीडियम हो या इंगलिच्च हिन्दी कोई टीचर नहीं जानता। अगर कोई जानता भी है तो बोलने की हिहिम्मत कहाँ। शर्म नहीं आयेगी। अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में गलत इंग्लिच्च या हिन्दी का प्रयोग किया तो स्टूडेंट की खैर नहीं। वहीं हिन्दी मीडियम स्कूलों में गलत हिन्दी बोलना फैच्चन है। चरण स्पर्च्च की जगह ली गुड मोर्निंग ने तो जलपान की रिफरेच्चेमेंण्ट नें। रिफरेच्चमेंण्ट की बात तो समझ आती है पर जलपान की बात आये तो हँसी आती है हिन्दी शब्द जो है अब प्रचलन में कहाँ! जल्द समय आयेगा जब कहेगें हिन्दी इच आउट ऑफ फैच्चन। (हिन्दी अब प्रचलन में नहीं है।) गुरुओं के पैर तो अब कोई छूता नहीं और गलती से किसी ने छू लिये तो नजदीक खड़े लोग आप पर हसेगें जरुर। हिन्दी की तो दुलगती हो गई है और इसके पीछे युवाओं से ज्यादा टीचर्स का हाथ हैं। समय बदल रहा है तो आवाज+ कैसे ना बदले। हिन्दी से नफरत का आलम यह है कि हिन्दी भी लोग इंग्लिच्च मिक्स पढ़ना माँगते हैं तभी तो अखबारों ने नयी योजना बनायी है अंगे्रजी मिक्स हिन्दी अखबार। हिन्दी का ज्ञान सही रखते नहीं है और अंगे्रजी का प्रयोग जोरों से करते हैं। भीड़ से खुद को अलग दिखाने के लिए हम उसी भीड़ में तेजी से चल रहें हैं उससे अलग नहीं।कहते हैं आगे बढ़ने के लिए एक पैर पीछे करना पड़ता है पर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इससे अगला कदम पीछे वाले पैर के बिना नहीं उठेगा। हम उस पैर को पीछे छोड़ नहीं देते हैं आगे लेकर आते हैं। पर बदलते समय के साथ हम अपना पीछे का पैर आगे लाना भूल रहें हैं तभी तो अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति को छोड़ कर दूसरों की संस्कृति की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। अगर जल्द ही अपने पीछे वाले पैर की याद हमें नहीं आयी तो एक ही नतीजा होगा हम सब मुह के बल गिरेगें। न अपनी संस्कृति के जानकार होगें न दूसरे की संस्कृति अपनाने लायक। समय के साथ परिवर्तन ठीक है पर इतना नहीं कि हम इस परिवर्तन में खुद को भूल जायें। अपनी संस्कृति का ध्यान रखें और हिन्दी का दुरगती न होने दे। तभी समय के साथ हम कदम से कदम मिलाकर बिना मुँह के बल गिरे चल सकते हैं। खुद को भूले बिना।
वरुण आनन्द

Monday, September 29, 2008

आवशकता siksha प्रणाली में परिवर्तन की!

एक उन्नत च्चिक्षा प्रणाली ही उन्नत राष्ट्र का आधार होती है यदि आधार सुदृढ़ होगा तो निच्च्िचत ही राष्ट्र उन्नत होगा और देच्चवासी खुच्चहाल।
आजादी के साठ साल के बाद भी भारत जैसा कृषि प्रधान देच्च एक विकासच्चील देच्च है ना कि विकसित। इसके कई कारण हो सकते हैं और उन कारणों में कहीं ना कहीं एक कारण प्राचीन और त्रुटि युक्त च्चिक्षा प्रणाली भी है। भारत जो कि अपनी सभी आवच्च्यकताओं की पूर्ति बिना बाहरी राष्ट्रों की मद्द के कर सकता है अन्य राष्ट्रों पर आश्रित है, कारण स्पष्ट है कि आजादी के साठ साल के बाद भी हम आगे आने का सबक नहीं सीख पायें हैं। आगे आने के लिए हमें किसी ना किसी क्षेत्र में सुधार की पहल करने की आवच्च्यकता है। अगर यह सुधार क्षेत्र राष्ट्र का आधार च्चिक्षा प्रणाली हो तो क्या बात है !
हर वर्ष ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत में मार्च, अप्रैल तथा मई महीनों में विद्यार्थी भारी दबाव में रहते हैं। इस दबाव का एक ही कारण है, उनकी परिक्षाएं। परिक्षाएं आवच्च्यक भी हैं क्योंकि सत्र की अन्तिम परिक्षाओं के आधार पर उनके अध्ययन का मूल्यांकन किया जाता है। इस समय विद्यार्थियों का दबाव में होना स्वाभाविक है। उन्हें किसी विषय पर अपनी साल भर की मेहनत का हिसाब एक दिन और उस दिन में भी महज तीन घण्टों में जो देना होता है। सभी विद्यार्थी कामना करते हैं कि उन्हें सफलता अवच्च्य मिले और सम्भव हो तो वे दूसरों से आगे निकल जायें।
विद्यार्थियों पर दबाव तब और बढ़ जाता है जब इस दौड़ में उनकें माता-पिता भी शामिल हो जातें हैं। जहाँ पिता अपने बच्चों के प्राप्त अंकों के सम्बन्ध में अपने मित्रों से बाते करते हैं और उनके सुन्दर भविष्य की कल्पना करते हैं, वहीं मातायें इस विषय पर अपनी सखियों के साथ किटी पार्टियों में बातचीत करते हुए मिल जाती हैं। वे अपने बच्चों के प्राप्तांकों पर उसी प्रकार इतराती हैं जिस प्रकार से अपने महगें आभूषणों और अपनी बनारसी साड़ियों पर। यदि कोई बच्चा उचित अंक अर्जित नहीं कर पाता है तो उसके माता-पिता सोचतें हैं कि वे समाज में किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे और उनके बच्चे ने उनकी नाक कटवा दी, उनका सिर शर्म से झुकवा दिया।
इन सब बातों के बीच वे भूल जातें हैं कि उनकें बच्चे को किस प्रकार के दबाव और तनाव को वहन करना पड़ता है, पर उन्हें तो सिर्फ अपनी झूठी शानोच्चौकत से प्यार होता है अपने बच्चे से नहीं जो उनकी वास्तविक दौलत है।
कभी-कभी आच्चानुकूल परिणाम नहीं मिलने पर विद्यार्थी बड़े उग्र कदम उठा लेतें हैं जिसका पछतावा उनके माता-पिता जीवन भर करतें हैं और तब उन्हें समझ में आता है कि जो उनकी सच्ची दौलत थी वो तो उनसे छिन गई और रह गई झूठी शानो च्चौकत। विद्यार्थी द्वारा उठाये गये इन कदमों का कारण कहीं ना कहीं उनके माता-पिता की आवच्च्यकता से अधिक उम्मीदें भी होती हैं। कहीं ना कहीं माता-पिता की वजह से ही कोई छात्र अपनी असफलता के कारण मौत को गले लगाता है। मौत के लिए वे ऐसे-ऐसे मार्ग ढूँढ़ता है जिन्हें सामान्य व्यक्ति सोचते हुए भी थर्राह उठे।
इन युवाओं के उग्र कदमों को रोकने के लिए माता-पिता की मानसिकता में परिवर्तन करना आवच्च्यक है ताकि वे अपनी कीमती दौलत को सद्बुद्धि दे सकें और उनके बढ़ते कदमों को रोक सकें।
आई.आई.टी. जैसे उच्च शैक्षिक संस्थानों में बढ़ती आत्मदाह की घटनाओं के पीछे भी शायद यही कारण रहे होगें। जो छात्र 4 लाख परिक्षार्थियों में से उन 3 हजार छात्रों में चुना गया है जो अपना भविष्य आई.आई.टी. के अन्दर बनायेगें क्या उसमे इतनी भी काबलियत नहीं कि वह अपने भविष्य को यहाँ सुधार सके! बिल्कुल है। पर यह काबलियत उनके ऊपर पड़ने वाला दबाव से छुप जाती है और अन्त में अपने को निर्बल समझ कर मौत को गले लगा लेते हैं। इसके पीछे हमारी च्चिक्षा प्रणाली का असन्तुलित होना भी एक कारण है।
दर असल विद्यार्थी परिक्षओं में अर्जित अंकों तथा अन्त में प्राप्त श्रेणी को ही सफलता का मापदण्ड मानते हैं। वे हरेक विषय में सर्वाधिक अंक हासिल करना चाहते हैं। वे सभी विद्यार्थी किसी ना किसी विषय में निपुण होता है पर सभी विषयों में निपुण हो यह आसान बात नहीं है। हर विद्यार्थी को अपने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आजाद की बातों पर विचार करना चाहिये। उनका कहना है ''अंक किसी विषय में अर्जित ज्ञान के संकेत मात्र होते हैं, वे चरित्र के मापदण्ड नहीं होते। एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में तुम्हारे विकास के लिए उत्तम नैतिक मूल्यों तथा आचरण को अच्छे अंको का परिपूरक बनाया जाना नितान्त आवच्च्यक है।'' ध्यान दीजिये, वह चरित्र पर बल देते हैं ना कि प्राप्तांको पर।
यद्यपि परीक्षा में प्रदर्च्चन छात्र की साल भर की मेहनत का एक अंच्च मात्र होता है, सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के अन्य पहलू हैं जिन पर श्रेणी प्रदान करते समय विचार किया जाना चाहिये। इसलिए अध्यापकों के लिए यह आवच्च्यक है कि वे अपने छात्रों को उन सर्वश्रेष्ठ मूल्यों को आत्मसार करने में मद्द करें जो उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में वर्द्धित करें। यदि इस पक्ष में हम पिछड़ गये तो सम्भवतः इसका अपयच्च हमारी वर्तमान च्चिक्षा प्रणाली को ही मिलेगा। स्वाधीनता के 60 वर्षों के बाद भी समय के साथ यह बदला नहीं है। वर्धनच्चील पीढ़ी के कल्याण के लिए असंख्य बलिदानों के मूल्य पर अर्जित अपनी आजादी का सदुपयोग हमें अभी भी करना बाकी है।

वरूण आनन्द

इतिहास से कोसो दूर वर्तमान पत्रकारिता


भारतीय पत्रकारिता के इतिहास के पन्नों पर से अगर धूल हटाये ंतो हमें पता चलेगा कि एक ऐसा दौर भी था जब पत्रकारिता धन कमाने के लिए नहीं की जाती थी। उस समय देच्च को आजादी दिलाना पत्रकारिता का मूल मकसद था। वो समय था जब पत्रकारिता में किसी ने भी व्यवसाय का चेहरा नहीं देखा था अपितु यह एक माध्यम था जनसामान्य तक अपनी बात पहुंचाने का। भारत को आजादी दिलाने के पीछे पत्रकारिता ने कम योगदान नहीं दिया है। ­
देच्च को आजादी मिली और पत्रों का ण्क मकसद पूरा हुआ, पर अब पत्रकारिता क्यों जिन्दा है ? सबको लगता है पत्रकारिता का कार्य जनता को सूचना देना और वर्तमान घटनाओं से अवगत कराना है। वास्तव में यह पत्रकारिता का मकसद तो है पर मूल नहीं। पत्रकारिता के पास एक मूल मकसद अभी भी है, पर यह 20वीं शताब्दी नहीं है, यह 21वीं सदी है आधुनिक युग, विज्ञान का युग। समय बदल चुका है तो पुराना मकसद कैसे बरकरार रहे। आज के स्वतंत्र और अपेक्षाकृत विकसित भारत में पत्रकारिता का स्वरूप बदल चुका है इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता। पत्रकारिता केवल व्यवसाय बन गया है यह कहना गलत नहीं है तो पूरी तरह से यही भी नहीं है परन्तु इस वाक्य को पूर्ण सत्य बनने में ज्यादा समय भी नहीं है। धीरे-धीरे ही सही पत्रकारिता की भावना समाप्त हो रही है और एक नई किस्म की पत्रकारिता जन्म लेने लगी है। अब सवाल मूल पत्रकारिता को मौत से बचाना है। मैंने दो बार पत्रकारिता शब्द का प्रयोग किया। दोनो शब्दों में अन्तर है पर ज्यादा नहीं। पहली पत्रकारिता जो मृत्यु की ओर अपने कदम बढ़ा चुकी है वो है सफेद कागज पर लिखे काले शब्द जो देच्च का वास्तविक हाल बयान करते हैं और दूसरी पत्रकारिता जो जन्म ले चुकी है उसका अर्थ है हरे कागज पर छपे नम्बर जो देच्च के वर्तमान हाल के लिए जिम्मेदार हैं। वर्तमान में पत्रकारिता का व्यावसायिकता के प्रति लगाव देखते ही बनता है। विज्ञापन और उससे प्राप्त धन आज पत्रकारिता को नए आयाम दे रहा है। आज मीडिया केवल राजनीतिक और सामाजिक जानकारियां प्रदान करने का माध्यम नहीं रहा अपितु वह भारतीय राजनीति का एक अंग बन चुका है।
वर्तमान पत्रकारिता और वास्तविक पत्रकारिता में अन्तर समझाने के लिए एक वाक्य ÷पहले निकलने वाले पत्रों के पीछे किसी व्यक्ति अथवा संस्था के कठिन प्रयास थे और वर्तमान में निकलने वाले पत्रों के पीछे है किसी बड़े व्यवसायी की पूंजी और उसके पीछे है कोई सपोर्टिव पार्टी। सपोर्टिव पार्टी को साथ रखने के लिए आवच्च्यक है कन्धा पत्र का और बन्दूक पार्टी की अर्थात्‌ कागज समाचारपत्र का और शब्द सपोर्टिव पार्टी के।'
बाहर से देखने पर कितनी सच्चाई दिखती है इस क्षेत्र में पर यह सच्चाई वास्तविकता से कोसो दूर है। बिना इस क्षेत्र में जाये वास्तविकता का सही अनुमान लगाना कठिन है। मैं आपकी मद्द करता हूँ आप मेरी मद्द कीजिए। मैं वर्तमान पत्रकारिता से आप का परिचय करवाउंगा और आप उसे सुधारने में मेरी मद्द कीजिए।
वर्तमान पत्रकारिता विज्ञापन और पार्टियों के इर्द-गिर्द घूम रही है वरना कौन मूर्ख है जो 15 रुपये के अखबार को मात्र 3 रुपये में आपको सौंप सकता है। आज एक समाचार पत्र के एक अंक की लागत 10 से 20 रुपये के बीच पड़ती है और रविवार को यह लागत 25 रुपये तक पहुंच जाती है, पर बिक्री मूल्य है कि 3-4 रुपये से अधिक बढ़ता ही नहीं। कारण स्पष्ट है समाचार पत्र आपसे धन नहीं कमाना चाहते वे तो बस आपको अपने पाठकों की गिनती में शामिल करवाना चाहते हैं, ताकि आपकी गिनती अपने विज्ञापन दाताओं के सामने रखें और उनके विज्ञापनो को छापने के लिए अपने पाठको की गिनती का हवाला देकर मुंह मांगी कीमत वसूल सकें। जिन समाचारों को समाचारपत्र में जगह मिलती है उनमे तमाम या तो वे समाचार किसी पार्टी, संस्था अथवा किसी उद्योगपति का अप्रत्यक्ष रूप में प्रचार होता है या उस पत्र का स्वयं को उठाने का प्रयास। वास्तविकता में समाचार कहीं भी नहीं होता है। किसी महान व्यक्ति ने सही कहा है ÷जिन बातों को अखबार में छुपाया जा रहा है वो सब समाचार है बाकी सब प्रचार है।' वर्तमान पत्रकारिता अपने पथ से भटक चुकी है। सभी समाचार पत्र दूसरे समाचार पत्रों से आगे निकलने के लिए सच्ची खबरों से ज्यादा मनोरंजक और मसालेदार खबारों को अपने पत्र का हिस्सा बनना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसा समाचार पत्र पाठको की माँगों पर ही करते हैं। समाचार पत्रों की गरिमा और उसमें सच्ची खबरों को वापस लाने के लिए समाचार पत्रों से पहले हमें खुद में कुछ परिवर्तन लाने पड़ेगें। हमें उन समाचार पत्रों पर ध्यान देना चाहिए जो सच्चाई पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जो समाचार पत्र स्वतंत्र हो कर लिखते हैं उनकी लेखनी में किसी पार्टी का पक्ष नहीं लिया जाता है ऐसे पत्रों की वर्तमान स्थिति भले ही खराब हो पर उन्हें हम ही आगे ला सकते हैं। एक बार ऐसे पत्रों का समय वापस आ गया तो सभी पत्रों को अपने पथ पर पर लौटने में अधिक समय नहीं लगेगा, और जब ऐसा हुआ तब विकासच्चील भारत को विकसित बनने में भी अधिक समय नहीं लगेगा, अपने देच्च का नाम विकसित राष्ट्रों में देखना मेरा सपना है और यह तभी संभव है जब आप मेरा साथ दे।
मैंने पत्रकारिता के कुछ वास्तविक पहलुओं से आपका परिचय करवाया। अब मैं आप से अनुमति चाहता हूँ और दूसरी बात जो चाहता हूँ वो यह है कि मैं वर्तमान पत्रकारिता को मूल पत्रकारिता के रुप में पुनः देखना चाहता हूँ और इसके लिए मैं अपनी तरफ से हर संभव प्रयास करूंगा। यदि आप इस कार्य में आप मेरा साथ देना चाहते हैं तो अपने विचार इस विषय पर लिखें, क्योंकि भारतीय पत्रकारिता के मूल पत्रकारिता के रूप में आने से ही भारत का विकास संभव है।
÷मेरे देच्च में पत्रकारिता बहुत बीमार है , यह बात सब जानते हैं पर कोई कुछ करता क्यों नहीं ? सब सोचते हैं कोई दूसरा करेगा पर दूसरा भी आपका भाई है वो कैसे दूसरी बात सोच सकता है। अगर कुछ करना है तो वो हमको करना है क्योंकि यहाँ कोई दूसरा है ही नहीं।'
वरुण आनंद

Sunday, May 11, 2008

जीत से बड़ी हार


सभी को जीत पसंद है । पर आप को पता है कुछ लोगो को हार ज्यादा पसंद है आप जानते है वो कोन लोग है ? मैं बताता हू । वो है आप के टीचर । क्या आप को पताहै उनको आपनी जीत से ज्यादा हार पसंद है कैसे ? जब भी उनका कोई विद्यार्थी उनसे आगे निकल जाता है तो उन को बहुत खुशी होती है । इस दुनिया मे केवल वो ही ऐसेहै जो सच मे आपनी हार से खुश होते है । यहां तक की वो आपनी हार के लिए आपने विद्यार्थियों को आशिर्वाद भी देते है तो आप ही बताइए उन से महान कोई हो सकता है । नही ना

एक विद्यार्थी
वरुण आनंद

Friday, May 9, 2008

इंतजार अतीत का



मैं आप को एक किस्सा बताता हू जिससे आप को लगेगा की हर कोई जानता है की वो क्या कर रह है और क्या कर चुका है ।
एक बार पेशे से टीचर किसी कारण से एक हॉस्पिटल पंहुचा कुछ देर इंतजार के बाद उसका मित्र आचानक वहां आया और बोला तुम यहां क्या कर रहे हो ? पहेले वाला बोला मैं किसी का इंतजार कर रहा हू उसने पूछा किसका ?
उसने कहा शायाद कोई पुराना विद्यार्थी मिल जाए जो यहां पर डॉक्टर हो और मेरा काम आसानी से हो जाए ।
कुछ देर बाद दोनों बाहर फिर मिले पहले वाले ने दूसरे से पूछा तुम यहां क्या कर रहे हो ?
उसने जवाब दिया किसी का इंतजार कर रह हू ।
पहेले वाले ने पूछा किसका ?
उस ने जवाब दिया शायद कोई पुराना विद्यार्थी रिक्शा चलता मिल जाए और घर छोड़ दे ।
इस तरह दोनों आपने आतीत का इंतजार कर रहे थे ।

सभी को पता होता है की वो क्या कर रह है और क्या कर चुका है ।

Wednesday, May 7, 2008

एक कदम अंत की ओर

अब हमे उस दिन का इंतजार करना शरू कर देना चाहिए जब हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नही बचेगा। हां वो दिन अब बहुत करीब है जब लोग खेती की जाने वाली भूमि पर अपना मकान बनने लगेगे। आबादी इतनी तेजी से बड़ रही हे कि लोगों के पास रहने के लिए घर नही बचंगे और तब लोग ऐसा करने को मजबूर हो जायेगे अब आप सोचिए कि तब हम लोग क्या खायागे। आप सोच रहे होगे कि तब हम लोग मांसाहार खायेगे। पर आप जरा सोचिए कि शाखाहारी पशु जो हमारा भोजन बनेगे बिना आनाज के जीवित कैसे रहेंगे ? जब वो जीवित ही नही रहेंगे तो हमारा भोजन कैसे बनेगे ? अब सोच मे डूब गए ना कि हम खएंगे क्या ? अब मैं आप को बताता हू कि उस समय की शरुवात कर दी गई है जब लोगो को खाना धरती के ऊपर नही मिलेगा तबखाना हम समुन्द्रो से प्राप्त करेगे आब ऐसे बीजो की खोज शरू कर दी गए है जो समुन्द्र मैं आनाज उगायेगे। इससे एक समस्या तो दूर हो जायेगी पेर एक नए समस्या भारत के सामने आ जायेगी । कैसी ? मैं आप को बताता हू भारत एक कृषि प्रधान देश है भारत आपनी जरूरतों कि चीजे आनाज का निर्यात कर के अन्य देशो से मांगता है जब खेती नही हो गी तो भारत के भविष्य के बारे में आप अनुमान लगा सकते है ।
शायद अंत की ओर यह कदम मानवता जाती का अंत ना हो पर भारत की आतामनिर्भरता के लिए तो है ही ।

Tuesday, May 6, 2008

हमारी धरोहर


भारत एक कृषि प्रधान देश है हमारे पास जल भी बहुत मात्रा मे है फिर भी हम दूसरे देशो पर निर्भर है आपनी जरूरत की चीजे पर्याप्त मात्रा मे होते हुए भी दूसरे देशो से मांगने की जरूरत हमे क्यो है ? इसका एक ही कारण हो सकता है की आजादी के ६० साल के बाद भी हम अभी तक अपनी ताकत को पहचान नही पाए है।

Monday, May 5, 2008

hindustanikhoon


हम हिंदुस्तान के रहने वाले है पर हिन्दुस्तानी नही हें ये मैं नही कहता आप ही तो कहते है। आप ही तो कहते है की वो मुसलमान है मैं हिंदू हू और वो सिख। तो सब कोई न कोई है धर्म से जुड़े है पर कोई भी हिंदुस्तान से नही जुड़ा है तो जब कोई हिंदुस्तान से नही जुडा है तो वो हिन्दुस्तानी कैसे हो सकता है। तो ये मैं नही कहता आप ही कहेते है कि हिंदुस्तान मैं रहते हुए भी हम हिन्दुस्तानी नही है। जब किसी माँ को पता चलता है कि उसके बच्चो मैं बटवारा हो गया है तो उसके दिल पे जो गुजरती है उसे केवल एक माँ ही महसूस कर सकती है उसी तरह जब धरती माँ देखती है कि उसके बच्चे आपस मैं लड़ रहे है तो उसे कैसा लगता होगा ये हम और आप नही वो महसूस कर सकता है जिसका दिल एक माँ जैसा हो ।
धन्यवाद
एक हिन्दुस्तानी
वरुण आनंद