Monday, September 29, 2008

आवशकता siksha प्रणाली में परिवर्तन की!

एक उन्नत च्चिक्षा प्रणाली ही उन्नत राष्ट्र का आधार होती है यदि आधार सुदृढ़ होगा तो निच्च्िचत ही राष्ट्र उन्नत होगा और देच्चवासी खुच्चहाल।
आजादी के साठ साल के बाद भी भारत जैसा कृषि प्रधान देच्च एक विकासच्चील देच्च है ना कि विकसित। इसके कई कारण हो सकते हैं और उन कारणों में कहीं ना कहीं एक कारण प्राचीन और त्रुटि युक्त च्चिक्षा प्रणाली भी है। भारत जो कि अपनी सभी आवच्च्यकताओं की पूर्ति बिना बाहरी राष्ट्रों की मद्द के कर सकता है अन्य राष्ट्रों पर आश्रित है, कारण स्पष्ट है कि आजादी के साठ साल के बाद भी हम आगे आने का सबक नहीं सीख पायें हैं। आगे आने के लिए हमें किसी ना किसी क्षेत्र में सुधार की पहल करने की आवच्च्यकता है। अगर यह सुधार क्षेत्र राष्ट्र का आधार च्चिक्षा प्रणाली हो तो क्या बात है !
हर वर्ष ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत में मार्च, अप्रैल तथा मई महीनों में विद्यार्थी भारी दबाव में रहते हैं। इस दबाव का एक ही कारण है, उनकी परिक्षाएं। परिक्षाएं आवच्च्यक भी हैं क्योंकि सत्र की अन्तिम परिक्षाओं के आधार पर उनके अध्ययन का मूल्यांकन किया जाता है। इस समय विद्यार्थियों का दबाव में होना स्वाभाविक है। उन्हें किसी विषय पर अपनी साल भर की मेहनत का हिसाब एक दिन और उस दिन में भी महज तीन घण्टों में जो देना होता है। सभी विद्यार्थी कामना करते हैं कि उन्हें सफलता अवच्च्य मिले और सम्भव हो तो वे दूसरों से आगे निकल जायें।
विद्यार्थियों पर दबाव तब और बढ़ जाता है जब इस दौड़ में उनकें माता-पिता भी शामिल हो जातें हैं। जहाँ पिता अपने बच्चों के प्राप्त अंकों के सम्बन्ध में अपने मित्रों से बाते करते हैं और उनके सुन्दर भविष्य की कल्पना करते हैं, वहीं मातायें इस विषय पर अपनी सखियों के साथ किटी पार्टियों में बातचीत करते हुए मिल जाती हैं। वे अपने बच्चों के प्राप्तांकों पर उसी प्रकार इतराती हैं जिस प्रकार से अपने महगें आभूषणों और अपनी बनारसी साड़ियों पर। यदि कोई बच्चा उचित अंक अर्जित नहीं कर पाता है तो उसके माता-पिता सोचतें हैं कि वे समाज में किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे और उनके बच्चे ने उनकी नाक कटवा दी, उनका सिर शर्म से झुकवा दिया।
इन सब बातों के बीच वे भूल जातें हैं कि उनकें बच्चे को किस प्रकार के दबाव और तनाव को वहन करना पड़ता है, पर उन्हें तो सिर्फ अपनी झूठी शानोच्चौकत से प्यार होता है अपने बच्चे से नहीं जो उनकी वास्तविक दौलत है।
कभी-कभी आच्चानुकूल परिणाम नहीं मिलने पर विद्यार्थी बड़े उग्र कदम उठा लेतें हैं जिसका पछतावा उनके माता-पिता जीवन भर करतें हैं और तब उन्हें समझ में आता है कि जो उनकी सच्ची दौलत थी वो तो उनसे छिन गई और रह गई झूठी शानो च्चौकत। विद्यार्थी द्वारा उठाये गये इन कदमों का कारण कहीं ना कहीं उनके माता-पिता की आवच्च्यकता से अधिक उम्मीदें भी होती हैं। कहीं ना कहीं माता-पिता की वजह से ही कोई छात्र अपनी असफलता के कारण मौत को गले लगाता है। मौत के लिए वे ऐसे-ऐसे मार्ग ढूँढ़ता है जिन्हें सामान्य व्यक्ति सोचते हुए भी थर्राह उठे।
इन युवाओं के उग्र कदमों को रोकने के लिए माता-पिता की मानसिकता में परिवर्तन करना आवच्च्यक है ताकि वे अपनी कीमती दौलत को सद्बुद्धि दे सकें और उनके बढ़ते कदमों को रोक सकें।
आई.आई.टी. जैसे उच्च शैक्षिक संस्थानों में बढ़ती आत्मदाह की घटनाओं के पीछे भी शायद यही कारण रहे होगें। जो छात्र 4 लाख परिक्षार्थियों में से उन 3 हजार छात्रों में चुना गया है जो अपना भविष्य आई.आई.टी. के अन्दर बनायेगें क्या उसमे इतनी भी काबलियत नहीं कि वह अपने भविष्य को यहाँ सुधार सके! बिल्कुल है। पर यह काबलियत उनके ऊपर पड़ने वाला दबाव से छुप जाती है और अन्त में अपने को निर्बल समझ कर मौत को गले लगा लेते हैं। इसके पीछे हमारी च्चिक्षा प्रणाली का असन्तुलित होना भी एक कारण है।
दर असल विद्यार्थी परिक्षओं में अर्जित अंकों तथा अन्त में प्राप्त श्रेणी को ही सफलता का मापदण्ड मानते हैं। वे हरेक विषय में सर्वाधिक अंक हासिल करना चाहते हैं। वे सभी विद्यार्थी किसी ना किसी विषय में निपुण होता है पर सभी विषयों में निपुण हो यह आसान बात नहीं है। हर विद्यार्थी को अपने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आजाद की बातों पर विचार करना चाहिये। उनका कहना है ''अंक किसी विषय में अर्जित ज्ञान के संकेत मात्र होते हैं, वे चरित्र के मापदण्ड नहीं होते। एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में तुम्हारे विकास के लिए उत्तम नैतिक मूल्यों तथा आचरण को अच्छे अंको का परिपूरक बनाया जाना नितान्त आवच्च्यक है।'' ध्यान दीजिये, वह चरित्र पर बल देते हैं ना कि प्राप्तांको पर।
यद्यपि परीक्षा में प्रदर्च्चन छात्र की साल भर की मेहनत का एक अंच्च मात्र होता है, सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के अन्य पहलू हैं जिन पर श्रेणी प्रदान करते समय विचार किया जाना चाहिये। इसलिए अध्यापकों के लिए यह आवच्च्यक है कि वे अपने छात्रों को उन सर्वश्रेष्ठ मूल्यों को आत्मसार करने में मद्द करें जो उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में वर्द्धित करें। यदि इस पक्ष में हम पिछड़ गये तो सम्भवतः इसका अपयच्च हमारी वर्तमान च्चिक्षा प्रणाली को ही मिलेगा। स्वाधीनता के 60 वर्षों के बाद भी समय के साथ यह बदला नहीं है। वर्धनच्चील पीढ़ी के कल्याण के लिए असंख्य बलिदानों के मूल्य पर अर्जित अपनी आजादी का सदुपयोग हमें अभी भी करना बाकी है।

वरूण आनन्द

इतिहास से कोसो दूर वर्तमान पत्रकारिता


भारतीय पत्रकारिता के इतिहास के पन्नों पर से अगर धूल हटाये ंतो हमें पता चलेगा कि एक ऐसा दौर भी था जब पत्रकारिता धन कमाने के लिए नहीं की जाती थी। उस समय देच्च को आजादी दिलाना पत्रकारिता का मूल मकसद था। वो समय था जब पत्रकारिता में किसी ने भी व्यवसाय का चेहरा नहीं देखा था अपितु यह एक माध्यम था जनसामान्य तक अपनी बात पहुंचाने का। भारत को आजादी दिलाने के पीछे पत्रकारिता ने कम योगदान नहीं दिया है। ­
देच्च को आजादी मिली और पत्रों का ण्क मकसद पूरा हुआ, पर अब पत्रकारिता क्यों जिन्दा है ? सबको लगता है पत्रकारिता का कार्य जनता को सूचना देना और वर्तमान घटनाओं से अवगत कराना है। वास्तव में यह पत्रकारिता का मकसद तो है पर मूल नहीं। पत्रकारिता के पास एक मूल मकसद अभी भी है, पर यह 20वीं शताब्दी नहीं है, यह 21वीं सदी है आधुनिक युग, विज्ञान का युग। समय बदल चुका है तो पुराना मकसद कैसे बरकरार रहे। आज के स्वतंत्र और अपेक्षाकृत विकसित भारत में पत्रकारिता का स्वरूप बदल चुका है इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता। पत्रकारिता केवल व्यवसाय बन गया है यह कहना गलत नहीं है तो पूरी तरह से यही भी नहीं है परन्तु इस वाक्य को पूर्ण सत्य बनने में ज्यादा समय भी नहीं है। धीरे-धीरे ही सही पत्रकारिता की भावना समाप्त हो रही है और एक नई किस्म की पत्रकारिता जन्म लेने लगी है। अब सवाल मूल पत्रकारिता को मौत से बचाना है। मैंने दो बार पत्रकारिता शब्द का प्रयोग किया। दोनो शब्दों में अन्तर है पर ज्यादा नहीं। पहली पत्रकारिता जो मृत्यु की ओर अपने कदम बढ़ा चुकी है वो है सफेद कागज पर लिखे काले शब्द जो देच्च का वास्तविक हाल बयान करते हैं और दूसरी पत्रकारिता जो जन्म ले चुकी है उसका अर्थ है हरे कागज पर छपे नम्बर जो देच्च के वर्तमान हाल के लिए जिम्मेदार हैं। वर्तमान में पत्रकारिता का व्यावसायिकता के प्रति लगाव देखते ही बनता है। विज्ञापन और उससे प्राप्त धन आज पत्रकारिता को नए आयाम दे रहा है। आज मीडिया केवल राजनीतिक और सामाजिक जानकारियां प्रदान करने का माध्यम नहीं रहा अपितु वह भारतीय राजनीति का एक अंग बन चुका है।
वर्तमान पत्रकारिता और वास्तविक पत्रकारिता में अन्तर समझाने के लिए एक वाक्य ÷पहले निकलने वाले पत्रों के पीछे किसी व्यक्ति अथवा संस्था के कठिन प्रयास थे और वर्तमान में निकलने वाले पत्रों के पीछे है किसी बड़े व्यवसायी की पूंजी और उसके पीछे है कोई सपोर्टिव पार्टी। सपोर्टिव पार्टी को साथ रखने के लिए आवच्च्यक है कन्धा पत्र का और बन्दूक पार्टी की अर्थात्‌ कागज समाचारपत्र का और शब्द सपोर्टिव पार्टी के।'
बाहर से देखने पर कितनी सच्चाई दिखती है इस क्षेत्र में पर यह सच्चाई वास्तविकता से कोसो दूर है। बिना इस क्षेत्र में जाये वास्तविकता का सही अनुमान लगाना कठिन है। मैं आपकी मद्द करता हूँ आप मेरी मद्द कीजिए। मैं वर्तमान पत्रकारिता से आप का परिचय करवाउंगा और आप उसे सुधारने में मेरी मद्द कीजिए।
वर्तमान पत्रकारिता विज्ञापन और पार्टियों के इर्द-गिर्द घूम रही है वरना कौन मूर्ख है जो 15 रुपये के अखबार को मात्र 3 रुपये में आपको सौंप सकता है। आज एक समाचार पत्र के एक अंक की लागत 10 से 20 रुपये के बीच पड़ती है और रविवार को यह लागत 25 रुपये तक पहुंच जाती है, पर बिक्री मूल्य है कि 3-4 रुपये से अधिक बढ़ता ही नहीं। कारण स्पष्ट है समाचार पत्र आपसे धन नहीं कमाना चाहते वे तो बस आपको अपने पाठकों की गिनती में शामिल करवाना चाहते हैं, ताकि आपकी गिनती अपने विज्ञापन दाताओं के सामने रखें और उनके विज्ञापनो को छापने के लिए अपने पाठको की गिनती का हवाला देकर मुंह मांगी कीमत वसूल सकें। जिन समाचारों को समाचारपत्र में जगह मिलती है उनमे तमाम या तो वे समाचार किसी पार्टी, संस्था अथवा किसी उद्योगपति का अप्रत्यक्ष रूप में प्रचार होता है या उस पत्र का स्वयं को उठाने का प्रयास। वास्तविकता में समाचार कहीं भी नहीं होता है। किसी महान व्यक्ति ने सही कहा है ÷जिन बातों को अखबार में छुपाया जा रहा है वो सब समाचार है बाकी सब प्रचार है।' वर्तमान पत्रकारिता अपने पथ से भटक चुकी है। सभी समाचार पत्र दूसरे समाचार पत्रों से आगे निकलने के लिए सच्ची खबरों से ज्यादा मनोरंजक और मसालेदार खबारों को अपने पत्र का हिस्सा बनना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसा समाचार पत्र पाठको की माँगों पर ही करते हैं। समाचार पत्रों की गरिमा और उसमें सच्ची खबरों को वापस लाने के लिए समाचार पत्रों से पहले हमें खुद में कुछ परिवर्तन लाने पड़ेगें। हमें उन समाचार पत्रों पर ध्यान देना चाहिए जो सच्चाई पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जो समाचार पत्र स्वतंत्र हो कर लिखते हैं उनकी लेखनी में किसी पार्टी का पक्ष नहीं लिया जाता है ऐसे पत्रों की वर्तमान स्थिति भले ही खराब हो पर उन्हें हम ही आगे ला सकते हैं। एक बार ऐसे पत्रों का समय वापस आ गया तो सभी पत्रों को अपने पथ पर पर लौटने में अधिक समय नहीं लगेगा, और जब ऐसा हुआ तब विकासच्चील भारत को विकसित बनने में भी अधिक समय नहीं लगेगा, अपने देच्च का नाम विकसित राष्ट्रों में देखना मेरा सपना है और यह तभी संभव है जब आप मेरा साथ दे।
मैंने पत्रकारिता के कुछ वास्तविक पहलुओं से आपका परिचय करवाया। अब मैं आप से अनुमति चाहता हूँ और दूसरी बात जो चाहता हूँ वो यह है कि मैं वर्तमान पत्रकारिता को मूल पत्रकारिता के रुप में पुनः देखना चाहता हूँ और इसके लिए मैं अपनी तरफ से हर संभव प्रयास करूंगा। यदि आप इस कार्य में आप मेरा साथ देना चाहते हैं तो अपने विचार इस विषय पर लिखें, क्योंकि भारतीय पत्रकारिता के मूल पत्रकारिता के रूप में आने से ही भारत का विकास संभव है।
÷मेरे देच्च में पत्रकारिता बहुत बीमार है , यह बात सब जानते हैं पर कोई कुछ करता क्यों नहीं ? सब सोचते हैं कोई दूसरा करेगा पर दूसरा भी आपका भाई है वो कैसे दूसरी बात सोच सकता है। अगर कुछ करना है तो वो हमको करना है क्योंकि यहाँ कोई दूसरा है ही नहीं।'
वरुण आनंद