Tuesday, October 21, 2008

बापू के देच्च पर नाथुओं का राज

कहने को देच्च तो बापू का है पर बापू के देच्च में हर जगह नाथू ही दिखते हैं। राष्ट्रपिता तो बापू हैं पर देच्च पर राज नाथुओं का है । नोट पर तो बापू हैं पर वोट के लिए लड़ने वाले नाथू हैं। स्वराज तो बापू ने पा लिया पर देच्चवासियों को सुराज कब मिलेगा ?
चुनाव आ रहे हैं और हमेच्चा की तरह नाथू कमर कसे तैयार हैं। इस बार फिर बापू की हत्या जो करनी है। कहीं निच्चाना चूक न जाए। नाथुओं का नारा है देच्च के विकास का वादा और काम है सारा माल अन्दर करना।
बन्दूक में गोलियां तो बहुत हैं पहचानना है कौन सी गोली है बापू के सीने को छलनी करने के लिए। वो गोली आरक्षण, राम सेतु, न्यूक्लियर डील की हो या फिर धूम्रपान की नयी चमकती गोली। और भी बहुत सी गोलियां है।
आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आया तो सभी दलों के नाथुओं के चेहरों पर कहीं खुच्ची तो कहीं गम दिख रहा था। एक तरफ आरक्षण देकर पिछड़ों का साथ मिला पर सामान्य का साथ कैसे छोड़ें। तो एक बड़े प्रदेच्च की मुख्यमंत्री ने केंद्र में आने पर सवर्णों को आरक्षण देने का वादा किया। आरक्षित वर्ग में क्रीमी लेयर पर दबंगों का असर इतना है कि जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहें हैं वैसे-वैसे क्रीमीलेयर की सीमा बढ़ती ही जा रही है। अब तो ३५ हजार महीना से ज्यादा कमाने वाला भी मलाई दार तबके के दायरे से बाहर हो गये हैं। क्या इतनी आमदनी वाले को आरक्षण के दायरे में रखना सही है ? बिल्कुल सही है। अगर वो दायरे से बाहर होंगे तो उनका वोट भी किसी और का होगा। सुप्रीम कोर्ट ने तो अपना काम पहले कर दिया लेकिन बाद में दबंगों के असर ने उसके किए करार पर पानी फेर दिया। दरअसल, क्रीमीलेयर वालों को तो आरक्षण की आवच्च्यकता ही नहीं है। इससे नुकसान ओबीसी मे ही ज्यादा पिछड़े लोगों का होना है। बापू के देच्च में जाली प्रमाण पत्र बनाना बहुत आसान है, ज्यादा तर ऐसे फर्जी पत्र बापू की तस्वीर के नीचे ही तैयार किये जाते हैं काले कोट वाले नाथुओं की दुकान में। यह वोट लेने के लिए छलावे के अलावा और कुछ नहीं है।
देच्च के भले के नाम पर न्यूक्लियर डील पर मुहर लग गई, कुछ नाथू खुच्च हुए तो कुछ इस डील के खिलाफ। वास्तव में इस डील से किसका भला होगा यह बता पाना अभी मुच्च्िकल है। इन सब के साथ और भी कई गोलियां हैं। सेतुसमुद्रम वाली गोली को लाने से मामला खराब हो सकता है इसलिए जब जरूरत पड़ेगी तभी उसे तमन्चे में डालेंगे।नाथुओं की नीति है एक गोली ठण्डे बस्ते में तो नई गोली तमन्चे के अन्दर। नई चमचमाती गोली का नाम है सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान निषेध। यह गोली तो सच में बापू के नच्चा रोधी देच्च को बनाने का सपना साकार करेगी। सब खुच्च हैं। खास तौर पर खाकी वर्दी वाले नाथू। उनकी रोज की आमदनी जो बढ़ जायेगी। सरकार ने दुपहिया वाहन वालों को हेलमेट पहनना जरूरी कर दिया तो खुच्ची इन्हें ही हुई थी। एक बकरे से ५०-१०० रुपये की कमाई जो होती थी। अब एक बकरा एक बीड़ी के बदले कम से कम एक बीड़ी तो दे ही देगा। बकरा ज्यादा शौकीन हुआ तो नाथुओं के ५-१० रुपये कहीं नहीं गये। एक माणिक चंद का तो जुगाड़ हो ही जायेगा। कुछ भी हो जाये यह कानून लागू हो पाएगा तो सिर्फ कागजों पर या मंत्रालय की फाइलों में। इससे जनता भी खुच्च, नच्चेड़ी भी खुच्च और वर्दी वाले नाथू भी खुच्च। इन सबको खुच्च करने के बाद नाथुओं को मिलने वाले वोटों की गिनती में कमी नहीं हो सकती।
ये बातें तो रहीं गोलियों की। अब बात करें बापू के सीने पर गोली चलाने वाले हाथों की। आज चारो तरफ गोडसे ही गोडसे हैं और बीच में हैं बेचारे बापू। साभी नाथू तो आपस में लड़ रहें हैं पर इस लड़ाई में बापू बलि का बकरा बन रहे हैं। हर बार जो होता आया है क्या इस बार भी वही होगा नाथू जीतेगा और बापू की हत्या कर देगा। इस बार वही हाथ बापू की हत्या करेंगे जो चुनाव में तीन तिकड़म से ज्यादा लूटने की कोच्चिच्च करेंगे। हमेच्चा से यही तो होता आया है। जो जीता उसी ने बापू की हत्या की, बापू के उसूलों की हत्या की। बापू भी सोचते होंगे उनकी गलती क्या थी ? क्या देच्च को आजादी दिलाना कोई अपराध था। आज देच्च फिरंगियों से तो आजाद है पर देच्च में घूम रहे नाथुओं से कब आजाद हो पाएगा। हो पाएगा भी कि नहीं।

Tuesday, October 14, 2008

समय बदल रहा है!

समय बदल रहा है, और हम! जमाने के साथ रहना है तो समय के साथ चलना है। पर क्या समय के साथ चलने में खुद को भूल जाना सही है?समय तो तेजी से बदल रहा है सब जानते हैं और हमारे भीतर कितने परिवर्तन आयें हैं कभी किसी ने सोचा है नहीं। मैंने भी नहीं सोचा था पर जब सोचा तो वो परिवर्तन कुछ ऐसे थे।सत युग, त्रेता युग सब बीत गये वैज्ञानिक युग का समय है हर घर में कम्प्यूटर है। कम्प्यूटर है तो सॉफटवेयर भी चाहिए। पुराने हो गये तो नये वर्सन के चाहिए। फोटोच्चॉप ७.० है तो ७.२ चाहिए, कोरल ११ है तो १२ चाहिए। सब कुछ कितना हाईटेक हो गया है। शायद अब हमें उस दिन के लिए तैयार रहना चाहिए जब ग्रन्थ और पुराण भी वर्सन में मिलेगें। हनुमान चालीस वर्सन ४, गीता वर्सन ५.२ और रामायण वर्सन १३। यह सिर्फ कल्पना है पर कम्प्यूटर भी कभी सिर्फ कल्पना ही थी। समय बदल गया है तो सोच भी बदलेगी खास तोर से युवाओं की सोच। इंक पैन की जगह जैल पैनों ने ले ली तो हेयर ओइल की जगह हेयर जैल ने। कभी समय था यज्ञ, हवन और तपस्या का। अब समय है डिस्को, डीजे और पब का। जेम्स बॉड के फैन तो मिलेगें पर हनुमान जी के भक्त कहाँ? गद्य में शोले शामिल हो गई है। जल्द ही काव्य में सूर, तुलसी और कबीर की जगह जावेद आख्तर और सयैद कादरी आ जायें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। अगर हिन्दी की परिक्षा में भीगे होठ की व्याखया करने को आये तो किस बोर्ड में २ लाख बच्चे हिन्दी में फेल होगें। गानों के बोल तो याद हैं पर श्लोक और दोहों के शब्द सही जगह पर कहाँ। हिमेच्च, सोनू को तो सभी जानते हैं पर तानसेन और बैजूबाबरा का नाम कभी सुना नहीं। कभी समय था मन्दिरोंमें भक्त दर्च्चन के लिए जाते थे, फिर समय आया मन्दिर में जोड़ों को दिखाने को। पर अब मन्दिर कौन जाये जब पाटनर मिलें डाण्डिया नाईट में। गानों के रीमिक्स का दौर है अब तो भजन भी ढोल मिक्स चाहिए। अगर जीन्स घुटने से फटेगी नहीं तो गर्लर्फैन्ड मिलेगीमिलेगी नहीं। खाने में घर पर बनी चपाटी से ज्यादा रेस्टोरेन्ट का गर्म कुत्ता (हॉट डॉग) पसन्द है। युवाओं में जाघियां दिखाने की होड़ मची है। तभी तो लोग जानेगें कि आपने ६०० रुपये की जॉकी पहनी है न कि २५ रुपये की अन्डरवियर। रईसी दिखाने का आसान फंडा बाईक में cc जितनी ज्यादा। पेट्रोल की परवाह नहीं पर स्टाइल से कोई समझौता नहीं। रिपोर्ट कार्ड में अंक ५० प्रतिच्चत से कम हैं पर माोबइल ५० हजार से सस्ता क्यों? घर पर रामायण कौन देखे जब टी.वी. में आये बिग बॉस। पर हमें समय के साथ चलना है। सह तो बात रही युवाओं की जिससे हम अपने माता-पिता सॉरी अपने मोम-डेड से जनरेच्चन गैप कह कर बच निकलते हैं पर बढ़ों को क्या वो भी तो समय की दौड़ में शामिल हैं। अब क्लास लें टीचरों की तो वो गुरु है हमारे हमेच्चा हमसे दो कदम आगे। स्कूल हिन्दी मीडियम हो या इंगलिच्च हिन्दी कोई टीचर नहीं जानता। अगर कोई जानता भी है तो बोलने की हिहिम्मत कहाँ। शर्म नहीं आयेगी। अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में गलत इंग्लिच्च या हिन्दी का प्रयोग किया तो स्टूडेंट की खैर नहीं। वहीं हिन्दी मीडियम स्कूलों में गलत हिन्दी बोलना फैच्चन है। चरण स्पर्च्च की जगह ली गुड मोर्निंग ने तो जलपान की रिफरेच्चेमेंण्ट नें। रिफरेच्चमेंण्ट की बात तो समझ आती है पर जलपान की बात आये तो हँसी आती है हिन्दी शब्द जो है अब प्रचलन में कहाँ! जल्द समय आयेगा जब कहेगें हिन्दी इच आउट ऑफ फैच्चन। (हिन्दी अब प्रचलन में नहीं है।) गुरुओं के पैर तो अब कोई छूता नहीं और गलती से किसी ने छू लिये तो नजदीक खड़े लोग आप पर हसेगें जरुर। हिन्दी की तो दुलगती हो गई है और इसके पीछे युवाओं से ज्यादा टीचर्स का हाथ हैं। समय बदल रहा है तो आवाज+ कैसे ना बदले। हिन्दी से नफरत का आलम यह है कि हिन्दी भी लोग इंग्लिच्च मिक्स पढ़ना माँगते हैं तभी तो अखबारों ने नयी योजना बनायी है अंगे्रजी मिक्स हिन्दी अखबार। हिन्दी का ज्ञान सही रखते नहीं है और अंगे्रजी का प्रयोग जोरों से करते हैं। भीड़ से खुद को अलग दिखाने के लिए हम उसी भीड़ में तेजी से चल रहें हैं उससे अलग नहीं।कहते हैं आगे बढ़ने के लिए एक पैर पीछे करना पड़ता है पर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इससे अगला कदम पीछे वाले पैर के बिना नहीं उठेगा। हम उस पैर को पीछे छोड़ नहीं देते हैं आगे लेकर आते हैं। पर बदलते समय के साथ हम अपना पीछे का पैर आगे लाना भूल रहें हैं तभी तो अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति को छोड़ कर दूसरों की संस्कृति की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। अगर जल्द ही अपने पीछे वाले पैर की याद हमें नहीं आयी तो एक ही नतीजा होगा हम सब मुह के बल गिरेगें। न अपनी संस्कृति के जानकार होगें न दूसरे की संस्कृति अपनाने लायक। समय के साथ परिवर्तन ठीक है पर इतना नहीं कि हम इस परिवर्तन में खुद को भूल जायें। अपनी संस्कृति का ध्यान रखें और हिन्दी का दुरगती न होने दे। तभी समय के साथ हम कदम से कदम मिलाकर बिना मुँह के बल गिरे चल सकते हैं। खुद को भूले बिना।
वरुण आनन्द